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Best 12+ Surdas Ke Dohe In Hindi | ” सूरदास के दोहे अर्थ के साथ “

Altaf Hassan by Altaf Hassan
January 2, 2021
in Dohe
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surdas ke dohe
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Hello Readers!!! You are highly welcomed on our website to read about Surdas Ke Dohe In Hindi / सूरदास के दोहे हिंदी में on our informational website Famous Hindi Poems.

Famous Hindi Poems सूचना वेबसाइट पर हिंदी में Surdas Ke Dohe के बारे में पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट पर आपका बहुत स्वागत है। नमस्कार दोस्तों, मेरा नाम Altaf Hassan और आज की पोस्ट में, आप सूरदास के दोहे hindi में पढ़ेंगे ।

सूरदास 16 वीं सदी के एक अंधे हिंदू धार्मिक कवि और गायक थे, जो कृष्ण की प्रशंसा में लिखे गीतों के लिए जाने जाते थे। वे आम तौर पर ब्रजभाषा में लिखी जाती हैं, जो हिंदी की दो साहित्यिक बोलियों में से एक है। हिंदी साहित्य में, भगवान कृष्ण के एकमात्र उपासक और ब्रजभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि सूरदास को हिंदी साहित्य का सूर्य माना जाता है।

Surdas के जीवन से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें।

Surdas / सूरदास  (Born somewhere between 1478 and 1483 — Died somewhere between 1579 and 1584) सूरदास का जन्म रुनकता नामक गाँव एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सूरदास के पिता का नाम रामदास था। वह एक गायक थे। सूरदास को आमतौर पर वल्लभ आचार्य की शिक्षाओं से अपनी प्रेरणा प्राप्त करने के रूप में माना जाता है।

सूरदास को उनकी रचना “सूर सागर” के लिए जाना जाता है। कहा जाता है कि सूरसागर में लगभग एक लाख पद हैं। लेकिन आधुनिक संस्करणों में, केवल पाँच हज़ार पद पाए जाते हैं। इसकी सौ से अधिक प्रतियां विभिन्न स्थानों पर प्राप्त हुई हैं।

Surdas ने सुर सर्वावली और साहित्य लहरी की भी रचना की। सूरदास भारतीय उपमहाद्वीप में बढ़ते भक्ति आंदोलन का एक हिस्सा थे। यह आंदोलन जनता के आध्यात्मिक सशक्तीकरण का प्रतिनिधित्व करता है।

और वहीं, सम्राट अकबर और महाराणा प्रताप जैसे योद्धा भी सूरदास जी से काफी प्रभावित थे। आज हम आपको इस लेख में सूरदास जी द्वारा लिखे गए Surdas Ke Dohe और उनके अर्थ के बारे में बताएंगे।

Famous ” Surdas Ke Dohe” | ” सूरदास के दोहे ”

Surdas Ke Dohe

Dohe 1. “ चरन कमल बंदौ हरि राई,
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै आंधर कों सब कछु दरसाई।
बहिरो सुनै मूक पुनि बोलै रंक चले सिर छत्र धराई,
सूरदास स्वामी करुनामय बार बार बंदौं तेहि पाई।
“

– Surdas Ke Dohe

अर्थ – इस दोहे में सूरदास का मतलब है कि जब श्री कृष्ण की कृपा किसी पर होती है, तो विकलांग आसानी से पैदल ही पहाड़ को पार कर जाता है और अंधे को भी दिखाई देने लगता है। गूंगा व्यक्ति बोलने लगता है और बहरा सुनने लगता है। जिसके पास खाने या पीने के लिए पैसे नहीं हैं, यानी वह गरीब है, वह भी कृष्ण की कृपा से अमीर बन जाता है। आगे सूरदास कहते हैं कि श्री कृष्ण से इतनी प्रार्थना किसे नहीं करनी चाहिए।

Dohe 2. “ बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
काहे को हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥
“

व्याख्या – जब श्री कृष्ण पहली बार राधा से मिले, तो उन्होंने राधा से पूछा, हे गोरी! आप कौन हैं, आप कहा रहती हैं, किसकी बेटी है, मैंने आपको इससे पहले ब्रज की गलियों में कभी नहीं देखा। तुम इस ब्रज में क्यों आई, अपने ही घर के आंगन में खेलती? यह सुनकर, राधा ने कहा, मैं सुनी थी कि नंदजी का लड़का माखन चोरी करता है। तब कृष्ण ने बात बदलते हुए कहा, लेकिन हम आपसे क्या चुराएंगे। ठीक है, हम दोनों साथ खेलते हैं। सूरदास कहते हैं कि इस तरह कृष्ण ने राधा को उन्हीं बातों में गुमराह किया।

Dohe 3. “ अरु हलधर सों भैया कहन लागे मोहन मैया मैया।
नंद महर सों बाबा अरु हलधर सों भैया।।
ऊंचा चढी चढी कहती जशोदा लै लै नाम कन्हैया।
दुरी खेलन जनि जाहू लाला रे! मारैगी काहू की गैया।।
गोपी ग्वाल करत कौतुहल घर घर बजति बधैया।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया।।
”

– Surdas Ke Dohe

अर्थ – इस दोहे का अर्थ हैं कि बाल कृष्ण ने यशोदा को मैया, बलराम को भैया और नंद को बाबा के नाम से पुकारना शुरू किया है। बाल कृष्ण अब बहुत शरारती हो गए हैं। वह तुरंत यशोदा की नज़रों से दूर हो जाते है। इसीलिए यशोदा को ऊंचाई पर जाकर कन्हैया कन्हैया पुकारनी पड़ती है।

Dohe 4. “ गुरू बिनु ऐसी कौन करै।
माला-तिलक मनोहर बाना, लै सिर छत्र धरै।
भवसागर तै बूडत राखै, दीपक हाथ धरै।
सूर स्याम गुरू ऐसौ समरथ, छिन मैं ले उधरे।
“

व्याख्या – इस दोहे में सूरदास जी कहते हैं कि चेलों पर गुरू के बिना ऐसी कृपा कौन कर सकता है कि वे गले में हार और मस्तक में तिलक धारण करते हैं। शीर्ष पर छत्र लगा होने से उनका रूप अत्यंतन्त मनमोहक हो जाता है। संसार -साबर में डूबने से बचाने के लिए वे अपने छात्र के हाथ में ज्ञान रूपी दीपक देते हैं। ऐसे गुरू पर बलिहारी जाते हुए सूरदास जी कहते हैं कि हमारे गुरू श्रीकृष्ण के इतने समर्थ हैं कि उन्होंने एक ही पल में मुझे इस संसार-सागर से पार कर दिया।

Dohe 5. “ अब कै माधव मोहिं उधारि।
मगन हौं भाव अम्बुनिधि में कृपासिन्धु मुरारि॥
नीर अति गंभीर माया लोभ लहरि तरंग।
लियें जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग॥
मीन इन्द्रिय अतिहि काटति मोट अघ सिर भार।
पग न इत उत धरन पावत उरझि मोह सिबार॥
काम क्रोध समेत तृष्ना पवन अति झकझोर।
नाहिं चितवत देत तियसुत नाम.नौका ओर॥
थक्यौ बीच बेहाल बिह्वल सुनहु करुनामूल।
स्याम भुज गहि काढ़ि डारहु सूर ब्रज के कूल॥
“

– Surdas Ke Dohe

अर्थ – दुनिया रूपी समुद्र में माया रूपी पानी भरा हुआ हैए, लालच की लहरें हैं, वासना के रूप में मगरमच्छ हैं, इंद्रियां मछलियां हैं, और पापों का बंडल इस जीवन के शीर्ष पर रखा गया है। इस समुद्र में मोह आकर्षण है। काम, क्रोध आदि की हवा हिल रही है। तब हरि नाम की नाव पार हो सकती है। महिलाओं और बेटों की माया मोह यहां देखने की अनुमति नहीं देती है। भगवान हाथ पकड़कर हमारे बेड़े को पार कर सकते हैं।

Dohe 6. “ मुख दधि लेप किए सोभित कर नवनीत लिए,
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए।
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए,
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए।
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए,
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए।
“

व्याख्या – सूरदास के इस दोहे में, कृष्ण के बचपन के बारे में बताया गया है कि जब वह छोटे थे, तब वे अपने घुटनों के बल चल रहे थे। उसने हाथों में ताजा मक्खन लिया और उसका पूरा शरीर कीचड़ से ढक हुआ है। उनके चेहरे पर दही हैं। उसके उभरे हुए गाल बहुत प्यारे लगते हैं और उसकी आँखें चंचल हैं। कान्हा के माथे पर गोरोचन का तिलक है। उसके बाल घुंघराले और लंबे हैं जो चलते समय उसके गाल पर आ जाते हैं और ऐसा लग रहा है कि भावरा रस पीने के लिए इधर-उधर भटक रही है। कान्हा के गले में पड़ा हार और शेर का नाखून उनकी सुंदरता में इजाफा करता है। अगर किसी को कृष्ण के इस सुंदर रूप के दर्शन हो जाएं, तो उसका जीवन सफल हो जाता है। अन्यथा, सौ दोषियों के लिए भी जीवन व्यर्थ है।

Surdas Ke Dohe

Dohe 7. “ अबिगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यो गूंगों मीठे फल की रास अंतर्गत ही भावै।।
परम स्वादु सबहीं जु निरंतर अमित तोष उपजावै।
मन बानी को अगम अगोचर सो जाने जो पावै।।
मून जाति जुगति बिनु निरालंब मन चक्रत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहि,तांतों सुर सगुन लीला पद गावै।।
“

अर्थ – निराकार ब्रह्म की सोच आवश्यक है। यह समरूपता और भाषण की बात नहीं है। जिस तरह एक गूंगे को मिठाई खिलाया जाता है और उसे स्वाद के लिए कहा जाता है, वह मिठाई का स्वाद नहीं बता सकता है। केवल उसका मन ही मीठे रस का स्वाद जानता है। निराकार ब्रह्म का कोई रूप नहीं है और न ही कोई गुण है। इसलिए मैं यहां खड़ा नहीं हो सकता। वह हर तरह से अगम्य है। इसलिए सूरदास जी ने सगुण ब्रह्म श्री कृष्ण की लीला का गायन करना उचित समझा।

Dohe 8. “ मोहिं प्रभु तुमसों होड़ परी।
ना जानौं करिहौ जु कहा तुम नागर नवल हरी॥
पतित समूहनि उद्धरिबै कों तुम अब जक पकरी।
मैं तो राजिवनैननि दुरि गयो पाप पहार दरी॥
एक अधार साधु संगति कौ रचि पचि के संचरी।
भ न सोचि सोचि जिय राखी अपनी धरनि धरी॥
मेरी मुकति बिचारत हौ प्रभु पूंछत पहर घरी।
स्रम तैं तुम्हें पसीना ऐहैं कत यह जकनि करी॥
सूरदास बिनती कहा बिनवै दोषहिं देह भरी।
अपनो बिरद संभारहुगै तब यामें सब निनुरी॥
“

व्याख्या – हे प्रभु, मैंने आपके साथ एक प्रतियोगिता में प्रवेश किया है। आपका नाम पापियों को बचाने वाला है, लेकिन मैं इसे नहीं मानता। आज मैं यह देखने आया हूं कि आप पापियों को कितना दूर करते हैं। यदि आप मोक्ष की जिद पकड़ते हैं, तो मेरे पास पाप करने का सत्याग्रह है। इस खेल में, आपको देखना होगा कि कौन जीतता है। मैं तुम्हारे कमलदल जैसे आखों से बचकर पाप की गुफा में छुपकर बैठा हूँ।

Dohe 9. “ हमारे निर्धन के धन राम।
चोर न लेत, घटत नहि कबहूॅ, आवत गढैं काम।
जल नहिं बूडत, अगिनि न दाहत है ऐसौ हरि नाम।
बैकुंठनाम सकल सुख-दाता, सूरदास-सुख-धाम।।
“

अर्थ – सूरदास जी कहते हैं कि राम गरीबों के धन हैं। राम के रूप में यह धन ऐसा है कि चोर इसे चुरा नहीं सकते। पैसा खर्च करने पर कम हो जाता है, लेकिन राम के रूप में पैसा खर्च करने पर यह कभी नहीं घटता। यह पैसा आपत्ति या परेशानी की स्थिति में उपयोगी है। यह देव-रूपी धन न तो पाली में डूबता है और न ही आग में जलता है। यानी यह हर हाल में सुरक्षित है। सूरदास जी कहते हैं कि हे बैकुंठ के स्वामी भगवान! आप सभी सुख देने वाले हैं और मेरे लिए आप सुखों के भंडार हैं, यानी मैं आपके धन से पूरी तरह खुश और संतुष्ट हूं।

Dohe 10. “ मैया री मोहिं माखन भावै ,
मधु मेवा पकवान मिठा मोंहि नाहिं रुचि आवे।
ब्रज जुवती इक पाछें ठाड़ी सुनति स्याम की बातें ,
मन-मन कहति कबहुं अपने घर देखौ माखन खातें।
बैठें जाय मथनियां के ढिंग मैं तब रहौं छिपानी,
सूरदास प्रभु अन्तरजामी ग्वालि मनहिं की जानी।।
“

व्याख्या – यहां कृष्ण माता यशोदा से कह रही हैं कि मुझे माखन बहुत अच्छा लगता है। मुझे शहद, नट्स, पकवान और मीठा पसंद नहीं है। ब्रज की एक युवती पीछे से सुन रही है और मन में कह रही है कि कभी उसके घर में उसने माखन खाया है, मैं मथनी के पीछे छुप गई, तब कृष्ण वहां आते हैं और माखन खाने लगते हैं। सूरदास कहते हैं कि प्रभु एक पारलौकिक व्यक्ति हैं और वह उस युवती के मन को जानते हैं।

Dohe 11. “ मुखहिं बजावत बेनु धनि यह बृंदावन की रेनु।
नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु॥
मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन।
चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु॥
इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु।
सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु॥
“

अर्थ – सूरदास कहते हैं कि ब्रज की भूमि सौभाग्यशाली हो गई है क्योंकि नंद पुत्र श्री कृष्ण अपनी गायों को यहां लाकर चढ़ाई करते हैं। वे बांसुरी बजाते हैं। मनमोहन, श्री कृष्ण का ध्यान करने से मन को परम शांति मिलती है। वे अपने मन से ब्रज में रहने के लिए कहते हैं। सभी को यहां सुख और शांति मिले। यहां हर कोई अपनी धुन में रचा-बसा है। किसी को किसी से कोई लेना-देना नहीं है। वे कहते हैं कि ब्रज में रहकर उन्हें ब्रजवासियों के झूठे बर्तन से कुछ भोजन मिलता है, जिससे वे संतुष्ट रहते हैं।

Dohe 12. “ मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ।
मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ?
कहा करौं इहि के मारें खेलन हौं नहि जात।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात?
गोरे नन्द जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात।
चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत हँसत-सबै मुसकात।
तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुँ न खीझै।
मोहन मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै।
सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।
सूर स्याम मौहिं गोधन की सौं, हौं माता तो पूत॥
“

– Surdas Ke Dohe

व्याख्या – इस दोहे में, श्रीकृष्ण ने अपनी माँ यशोदा से शिकायत की कि उनके बड़े भाई बलराम उन्हें बहुत चिढ़ाते हैं। वे अपनी मां से कहते हैं कि आपने मुझे पैसे देकर खरीदा है, मैंने जन्म नहीं दिया है। इसलिए मैं बलराम के साथ खेलने नहीं जाऊंगा। बलराम बार-बार श्री कृष्ण से पूछते हैं कि आपके असली माता-पिता कौन हैं? वह मुझे बताता है कि नंद बाबा और मैया यशोदा गोरे हैं लेकिन मैं काला कैसे हूं? वह बार-बार नाचता है। यह सुनकर सभी चरवाहे भी हंस पड़े।

Surdas Ke Dohe अंतिम शब्द।

तो, आज के लिए बस इतना ही। उपरोक्त सभी (Surdas Ke Dohe) / तुलसी दास के दोहे पढ़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हमें खेद है कि इस पोस्ट में हमने सभी सूरदास / Surdas के दोहे नहीं लिखी।

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